Published by – Bk Ganapati
Category - Religion, Ethics , Spirituality & New Age & Subcategory - Murali - Nov - 2018
Summary - Satya Shree Trimurti Shiv Bhagawanubach Shrimad Bhagawat Geeta. Month - Nov-2018 ( Daily Murali - Prajapita Brahmakumaris - Magic Flute )
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Details ( Page:- Murali 04-Nov-2018 )
04-11-18 प्रात:मुरली ओम् शान्ति ''अव्यक्त-बापदादा'' रिवाइज: 24-02-84 मधुबन

 

ब्राह्मण जन्म - अवतरित जन्म

 

बापदादा आवाज में आते सभी को आवाज से परे की स्थिति में ले जाने के लिए, व्यक्त देश में व्यक्त शरीर में प्रवेश होते हैं अव्यक्त बनाने के लिए। सदा अपने को अव्यक्त स्थिति वाले सूक्ष्म फरिश्ता समझ व्यक्त देह में अवतरित होते हो? सभी अवतरित होने वाले अवतार हो। इसी स्मृति में सदा हर कर्म करते, कर्म के बन्धनों से मुक्त कर्मातीत अवतार हो। अवतार अर्थात् ऊपर से श्रेष्ठ कर्म के लिए नीचे आते हैं। आप सभी भी ऊंची ऊपर की स्थिति से नीचे अर्थात् देह का आधार ले सेवा के प्रति कर्म करने के लिए पुरानी देह में, पुरानी दुनिया में आते हो। लेकिन स्थिति ऊपर की रहती है, इसलिए अवतार हो। अवतार सदा परमात्म पैगाम ले आते हैं। आप सभी संगमयुगी श्रेष्ठ आत्मायें भी परमात्म पैगाम देने के लिए, परमात्म मिलन कराने के लिए अवतरित हुए हो। यह देह अब आपकी देह नहीं रही। देह भी बाप को दे दी। सब तेरा कहा अर्थात् मेरा कुछ नहीं। यह देह सेवा के अर्थ बाप ने लोन में दी है। लोन में मिली हुई वस्तु पर मेरे-पन का अधिकार हो नहीं सकता। जब मेरी देह नहीं तो देह का भान कैसे सकता। आत्मा भी बाप की बन गई, देह भी बाप की हो गई तो मैं और मेरा कहाँ से आया! मैं-पन सिर्फ एक बेहद का रहा - "मैं बाप का हूँ'', जैसा बाप वैसा मैं मास्टर हूँ। तो यह बेहद का मैं-पन रहा। हद का मैं-पन विघ्नों में लाता है। बेहद का मैं-पन निर्विघ्न, विघ्नविनाशक बनाता है। ऐसे ही हद का मेरा पन मेरे-मेरे के फेरे में लाता है और बेहद का मेरा-पन जन्मों के फेरों से छुड़ाता है।

 

बेहद का मेरा-पन है - "मेरा बाबा'' तो हद छूट गई ना। अवतार बन देह का आधार ले सेवा के कर्म में आओ। बाप ने लोन अर्थात् अमानत दी है सेवा के लिए। और कोई व्यर्थ कार्य में लगा नहीं सकते। नहीं तो अमानत में ख्यानत का खाता बन जाता है। अवतार व्यर्थ खाता नहीं बनाता। आया, सन्देश दिया और गया। आप सभी भी सेवा-अर्थ, सन्देश देने अर्थ ब्राह्मण जन्म में आये हो। ब्राह्मण जन्म अवतरित जन्म है, साधारण जन्म नहीं। तो सदा अपने को अवतरित हुई विश्व कल्याणकारी, सदा श्रेष्ठ अवतरित आत्मा हैं - इसी निश्चय और नशे में रहो। टैप्रेरी समय के लिए आये हो और फिर जाना भी है। अब जाना है, यह सदा याद रहता है? अवतार हैं, आये हैं, अब जाना है। यही स्मृति उपराम और अपरमअपार प्राप्ति की अनुभूति कराने वाली है। एक तरफ उपराम, दूसरे तरफ अपरमअपार प्राप्ति। दोनों अनुभव साथ-साथ रहते हैं। ऐसे अनुभवी मूर्त हो ना! अच्छा!

 

अब सुनने को स्वरूप में लाना है। सुनना अर्थात् बनना। आज विशेष हमजिन्स से मिलने आये हैं। हमशरीक हो गये ना। सत शिक्षक निमित्त शिक्षकों से मिलने आये हैं। सेवा के साथियों से मिलने आये हैं। अच्छा!

 

सदा बेहद के मैं-पन के स्मृति स्वरूप, सदा बेहद का मेरा बाप इसी समर्थ स्वरूप में स्थित रहने वाले, सदा ऊंची स्थिति में स्थित रह, देह का आधार ले अवतरित होने वाले अवतार बच्चों को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।

 

टीचर्स के साथ:- सदा सेवाधारी आत्माओं का यह संगठन है ना। सदा अपने को बेहद के विश्व सेवाधारी समझते हो? हद के सेवाधारी तो नहीं हो ना। सब बेहद के हो? किसी को भी किसी स्थान से किसी भी स्थान पर भेज दें तो तैयार हो? सभी उड़ते पंछी हो? अपने देह के भान की डाली से भी उड़ते पंछी हो? सबसे ज्यादा अपने तरफ आकर्षित करने वाली डाली - यह देह का भान है। जरा भी पुराने संस्कार, अपने तरफ आकर्षित करते माना देह का भान है। मेरा स्वभाव ऐसा है, मेरा संस्कार ऐसा है, मेरी रहन-सहन ऐसी है, मेरी आदत ऐसी है, यह सब देह भान की निशानी है। तो इस डाली से उड़ते पंछी हो? इसको ही कहा जाता है कर्मातीत स्थिति। कोई भी बन्धन नहीं। कर्मातीत का अर्थ यह नहीं है कि कर्म से अतीत हो लेकिन कर्म के बन्धन से न्यारे। तो देह के कर्म, जैसे किसका नेचर होता है - आराम से रहना, आराम से समय पर खाना, चलना यह भी कर्म का बन्धन अपने तरफ खींचता है। इस कर्म के बन्धन अर्थात् आदत से भी परे क्योंकि निमित्त हो ना।

 

जब तक आप सभी निमित्त आत्मायें कर्म के बन्धनों से, देह के संस्कार-स्वभाव से न्यारे नहीं होंगे तो औरों को कैसे करेंगे! जैसे शरीर की बीमारी कर्म का भोग है, इसी रीति से अगर कोई भी कर्म का बन्धन अपने तरफ खींचता है, तो यह भी कर्म का भोग विघ्न डालता है। जैसे शारीरिक व्याधि कर्म भोग अपनी तरफ बार-बार खींचता है, दर्द होता है तो खींचता है ना। तो कहते हो क्या करें, वैसे तो ठीक है लेकिन कर्मभोग कड़ा है। ऐसे कोई भी विशेष पुराना संस्कार-स्वभाव वा आदत अपने तरफ खींचती है तो वह भी कर्मभोग हो गया। कोई भी कर्मभोग कर्मयोगी बना नहीं सकेगा। तो इससे भी पार। क्यों? सभी नम्बरवन जाने वाली आत्मायें हो ना। वन नम्बर का अर्थ ही है - हर बात में विन करने वाली। कोई भी कमी नहीं। टीचर्स का अर्थ ही है सदा अपनी मूर्त द्वारा कर्मातीत ब्रह्मा बाप और न्यारे तथा प्यारे शिव बाप की अनुभूति कराने वाले। तो यह विशेषता है ना। फ्रैन्डस हो ना आप! फ्रैन्डस कैसे बनते हैं? बिना समान के फ्रैन्डस नहीं बन सकते। तो आप सब बाप के फ्रैन्डस हो, गाडली फ्रैन्डस हो। समान होना ही फ्रैन्डशिप है। बाप के कदम पर कदम रखने वाले क्योंकि फ्रैन्डस भी हो और फिर माशूक के आशिक भी हो। तो आशिक सदा माशूक के पांव के ऊपर पांव रखते हैं। यह रसम है ना। जब शादी होती है तो क्या कराते हैं! यही कराते हैं ना। तो यह सिस्टम भी कहाँ से बनी? आप लोगों से बनी है। आपका है बुद्धि रूपी पांव और उन्होंने स्थूल पांव समझ लिया है। हर सम्बन्ध से विशेषता का सम्बन्ध निभाने वाली निमित्त आत्मायें हो।

 

निमित्त शिक्षकों को औरों से बहुत सहज साधन हैं। दूसरों को तो फिर भी सम्बन्ध में रहना पड़ता है और आपका सम्बन्ध सदा सेवा और बाप से है। चाहे लौकिक कार्य भी करते हो तो भी सदा यही याद रहता है कि टाइम हो और सेवा पर जाएं। और लौकिक कार्य जिसके लिए किया जाता है, उसकी स्मृति स्वत: आती है। जैसे लौकिक में माँ-बाप कमाते हैं बच्चे के लिए। तो उनकी स्वत: याद आती है। तो आप भी जिस समय लौकिक कार्य करते हो तो किसके प्रति करते हो? सेवा के लिए करते हो - या अपने लिए? क्योंकि जितना सेवा में लगाते उतनी खुशी होती है। कभी लौकिक सेवा समझकर नहीं करो। यह भी एक सेवा का तरीका है, रूप भिन्न है लेकिन है सेवा के प्रति। नहीं तो देखो अगर लौकिक सेवा करके सेवा का साधन नहीं होता तो संकल्प चलता है कि कहाँ से आवे! कैसे आवे! चलता नहीं है। पता नहीं कब होगा! यह संकल्प व्यर्थ समय नहीं गंवाता? इसलिए कभी भी लौकिक जॉब (धन्धा) करते हैं, यह शब्द नहीं बोलो। यह अलौकिक जॉब है। सेवा निमित्त है। तो कभी भी बोझ नहीं लगेगा। नहीं तो कभी-कभी भारी हो जाते हैं, कब तक होगा, क्या होगा! यह तो आप लोगों के लिए प्रालब्ध बहुत सहज बनाने का साधन है।

 

तन-मन-धन तीन चीज़ें हैं ना! अगर तीनों ही चीज़ें सेवा में लगाते हैं तो तीनों का फल किसको मिलेगा? आपको मिलेगा या बाप को! तीनों ही रीति से अपनी प्रालब्ध बनाना, तो यह औरों से एडीशन प्रालब्ध हो गई इसलिए कभी भी इसमें भारी नहीं। सिर्फ भाव को बदली करो। लौकिक नहीं अलौकिक सेवा के प्रति ही है। इसी भाव को बदली करो। समझा - यह तो और ही डबल सरेन्डर हुए। धन से भी सरेन्डर हो गये, सब बाप के प्रति है। सरेन्डर का अर्थ क्या है? जो कुछ है बाप के प्रति है अर्थात् सेवा के प्रति है। इसे ही सरेन्डर कहा जाता है। जो समझते हैं हम सरेन्डर नहीं हैं, वह हाथ उठाओ! उनकी सरेमनी मना लेंगे! बाल बच्चे भी पैदा हो गये और कहते हो सरेन्डर नहीं हुए। अपना मैरेज डे भले मनाओ लेकिन मैरेज हुई नहीं यह तो नहीं कहो। क्या समझते हो, सारा ही ग्रुप सरेन्डर ग्रुप है ना!

 

बापदादा तो डबल विदेशी वा डबल विदेश के स्थान पर निमित्त बनी हुई टीचर्स की बहुत महिमा करते हैं। ऐसे ही नहीं महिमा करते हैं लेकिन मुहब्बत से विशेष मेहनत भी करते हो। मेहनत तो बहुत करनी पड़ती है लेकिन मुहब्बत से मेहनत महसूस नहीं होती, देखो, कितने दूर-दूर से ग्रुप तैयार करके लाते हैं, तो बापदादा बच्चों की मेहनत पर बलिहार जाते हैं। एक विशेषता डबल फारेन के निमित्त सेवाधारियों की बहुत अच्छी है। जानते हो कौन-सी विशेषता है? (अनेक विशेषतायें निकली) जो भी बातें निकाली वह स्वयं में चेक करके कम हो तो भर लेना क्योंकि बातें तो बहुत अच्छी-अच्छी निकाली हैं। बापदादा सुना रहे हैं - एक विशेषता डबल विदेशी सेवाधारियों में देखी कि जो बापदादा डायरेक्शन देते हैं - यह करके लाना, वह प्रैक्टिकल में लाने के लिए हमेशा कितना भी प्रयत्न करना पड़े लेकिन प्रैक्टिकल में लाना ही है, यह लक्ष्य प्रैक्टिकल अच्छा है। जैसे बापदादा ने कहा कि ग्रुप लाने हैं तो ग्रुप्स भी ला रहे हैं।

 

बापदादा ने कहा वी.आई.पीज की सर्विस करनी है, पहले कितना मुश्किल कहते थे, बहुत मुश्किल - लेकिन हिम्मत रखी करना ही है तो अभी देखो दो साल से ग्रुप्स रहे हैं ना। कहते थे लण्डन से वी.आई.पी. आना बहुत मुश्किल है। लेकिन अभी देखो प्रत्यक्ष प्रमाण दिखाया ना। इस बारी तो भारत वालों ने भी राष्ट्रपति को लाकर दिखाया। लेकिन फिर भी डबल विदेशियों का यह उमंग डायरेक्शन मिला और करना ही है, यह लगन अच्छी है। प्रैक्टिकल रिजल्ट देख बापदादा विशेषता का गायन करते हैं। सेन्टर खोलते हो वह तो पुरानी बात हो गई। वह तो खोलते ही रहेंगे क्योंकि वहाँ साधन बहुत सहज हैं। यहाँ से वहाँ जा करके खोल सकते हो, यह भारत में साधन नहीं है इसलिए सेन्टर खोलना कोई बड़ी बात नहीं लेकिन ऐसे अच्छे-अच्छे वारिस क्वालिटी तैयार करना। एक है वारिस क्वालिटी तैयार करना और दूसरा है बुलन्द आवाज वाले तैयार करना। दोनों ही आवश्यक हैं। वारिस क्वालिटी - जैसे आप सेवा के उमंग-उत्साह में तन-मन-धन सहित रहते हुए भी सरेन्डर बुद्धि हो, इसको कहते हैं वारिस क्वालिटी। तो वारिस क्वालिटी भी निकालनी है। इसके ऊपर भी विशेष अटेन्शन। हरेक सेवाकेन्द्र में ऐसे वारिस क्वालिटी हों तो सेवाकेन्द्र सबसे नम्बरवन में जाता है।

 

एक है सेवा में सहयोगी होना, दूसरे हैं पूरा ही सरेन्डर होना। ऐसे वारिस कितने हैं? हरेक सेवाकेन्द्र पर ऐसे वारिस हैं? गाडली स्टूडेन्ट बनाना, सेवा में सहयोगी बनना - वह लिस्ट तो लम्बी होती है लेकिन वारिस कोई-कोई होते हैं। जिसको जिस समय जो डायरेक्शन मिले, जो श्रीमत मिले उसी प्रमाण चलता रहे। तो दोनों ही लक्ष्य रखो, वह भी बनाना है और वह भी बनाना है। ऐसा वारिस क्वालिटी वाला एक अनेक सेन्टर खोलने के निमित्त बन सकता है। यह भी लक्ष्य से प्रैक्टिकल होता रहेगा। विशेषता तो अपनी समझी ना। अच्छा।

 

सन्तुष्ट तो हैं ही, या पूछना पड़े। हैं ही सन्तुष्ट करने वाले। तो जो सन्तुष्ट करने वाला होगा वह स्वयं तो होगा ना। कभी सर्विस थोड़ी कम देख करके हलचल में तो नहीं आते हो? सेवाकेन्द्र पर जब कोई विघ्न आता है तो विघ्न को देख घबराते हो? समझो, बड़े ते बड़ा विघ्न गया - कोई अच्छा अनन्य एन्टी हो जाता है और डिस्टर्ब करता है आपकी सेवा में तो क्या करेंगे? क्या घबरायेंगे? एक होता है उसके प्रति कल्याण के भाव से तरस रखना वह दूसरी बात है लेकिन स्वयं की स्थिति नीचे-ऊपर हो या व्यर्थ संकल्प चले इसको कहते हैं हलचल में आना। तो संकल्प की सृष्टि भी नहीं रचें। यह संकल्प भी हिला सकें! इसको कहते हैं अचल अडोल स्थिति। ऐसे भी नहीं कि अलबेले हो जाएं कि नथिंग न्यु। सेवा भी करें, उसके प्रति रहमदिल भी बनें लेकिन हलचल में नहीं आयें। तो अलबेले, फीलिंग में आने वाले। सदा ही किसी भी वातावरण में, वायुमण्डल में हो लेकिन अचल-अडोल रहो। कभी कोई निमित्त बने हुए राय देते हैं, उनमें कनफ्यूज़ नहीं हो। ऐसे नहीं सोचो कि यह क्यों कहते हैं या यह कैसे होगा! क्योंकि जो निमित्त बने हुए हैं वह अनुभवी हो चुके हैं, और जो प्रैक्टिकल में चलने वाले हैं कोई नये हैं, कोई थोड़े पुराने भी हैं लेकिन जिस समय जो बात उसके सामने आती है, तो बात के कारण इतनी क्लीयर बुद्धि आदि मध्य अन्त को नहीं जान सकती है। सिर्फ वर्तमान को जान सकती है इसलिए सिर्फ वर्तमान देख करके, आदि मध्य उस समय क्लीयर नहीं होता तो कनफ्यूज़ हो जाते हैं। कभी भी कोई डायरेक्शन अगर नहीं भी स्पष्ट हो तो कनफ्यूज़ कभी नहीं होना। धैर्य से कहो इसको समझने की कोशिश करेंगे। थोड़ा टाइम दो उसको। उसी समय कनफ्यूज़ होकर यह नहीं, वह नहीं, ऐसे नहीं करो क्योंकि डबल विदेशी फ्री माइन्ड ज्यादा हैं इसलिए ना भी फ्री माइन्ड से कह देते हैं इसलिए थोड़ा-सा जो भी बात मिलती है - उसको गम्भीरता से पहले सोचो, उसमें कोई कोई रहस्य अवश्य छिपा होता है। उससे पूछ सकते हो इसका रहस्य क्या है? इससे क्या फायदा होगा? हमें और स्पष्ट समझाओ। यह कह सकते हो। लेकिन कभी भी डायरेक्शन को रिफ्यूज़ नहीं करो। रिफ्यूज़ करते हो इसलिए कनफ्यूज़ होते हो। यह थोड़ा विशेष अटेन्शन डबल विदेशी बच्चों को देते हैं। नहीं तो क्या होगा जैसे आप निमित्त बने हुए, बहनों के डायरेक्शन को जानने का प्रयत्न नहीं करेंगे और हलचल में जायेंगे तो आपको देखकर जिन्हों के निमित्त आप बने हो, उन्हों में यह संस्कार भर जायेंगे। फिर कभी कोई रुसेगा, कभी कोई रुसेगा। फिर सेन्टर पर यही खेल चलेगा। समझा! अच्छा।

 

वरदान:-ज्ञान और योग की शक्ति से हर परिस्थिति को सेकण्ड में पास करने वाले महावीर भव

 

महावीर अर्थात् सदा लाइट और माइट हाउस। ज्ञान है लाइट और योग है माइट। जो इन दोनों शक्तियों से सम्पन्न हैं वह हर परिस्थिति को सेकण्ड में पास कर लेते हैं। अगर समय पर पास होने के संस्कार पड़ जाते हैं तो फाइनल में भी वह संस्कार फुल पास होने नहीं देते। जो समय पर फुल पास होता है उसको कहते हैं पास विद ऑनर। धर्मराज भी उसको ऑनर देता है।

 

स्लोगन:-योग अग्नि से विकारों के बीज को भस्म कर दो तो समय पर धोखा मिल नहीं सकता।

 

 

04/11/18              Madhuban          Avyakt BapDada               Om Shanti           24/02/84

 

Brahmin birth is the birth of incarnation.

 

BapDada comes into sound to take everyone into the stage beyond sound. He comes to the corporeal world and enters a corporeal body to make you avyakt. Are you always incarnated in your corporeal bodies whilst being in the avyakt stage and considering yourselves to be subtle angels? All of you are incarnations that incarnate. By performing every deed in this awareness, you become the karmateet incarnations who are free from any bondage of karma. An incarnation means someone who comes down here from up above in order to perform elevated deeds. All of you too with your high stage from up above, take the support of a body, enter an old body in the old world in order to perform actions for service. However, your stage remains that of up above and this is why you are incarnations. An incarnation always brings a message from God. All of you confluence-aged, elevated souls have also incarnated in order to give God's message and to enable everyone to meet God. That body is now no longer yours. You have given even your body to the Father. You said: Everything is Yours and therefore nothing is mine. The Father has given you that body on loan for service. You can have no right to something that you have taken on loan. Since that body is not yours, how could there be body consciousness? The soul belongs to the Father and the body also belongs to the Father. So, where did "I" and "mine" come from? There is now just the unlimited consciousness of "I". "I" belong to the Father. As is the Father, so am I the master. Therefore, this is the unlimited consciousness of "I". A limited consciousness of "I" brings obstacles. The unlimited consciousness of "I" makes you free from obstacles and a destroyer of obstacles. In the same way, a limited consciousness of "I" brings you into the spinning of “mine,” whereas the unlimited consciousness of "I" liberates you from all spinning for many births.

 

The unlimited consciousness of "mine" is "My Baba". So the limited is renounced. Become an incarnation, take the support of a body and come to perform actions for service. The Father has given you a loan, that is, He has entrusted you with something for service. You cannot do it for anything wasteful. Otherwise, that would create an account of dishonesty with regard to the treasures entrusted to you. An incarnation doesn't create an account of waste. An incarnation comes, gives a message and leaves. All of you have taken this Brahmin birth for the sake of service and to give a message. The Brahmin birth is the birth in which you have incarnated; it is not an ordinary birth. Therefore, always consider yourself to have incarnated in order to be a world benefactor, a constantly elevated, incarnated soul. Maintain this faith and intoxication. You have come here for a temporary period and you then also have to go back. Now, do you always remember that you have to go back? You are an incarnation. You have now come and you then have to return. This awareness will give you the experience of going beyond and having limitless attainment. On the one hand, beyond and on the other hand, limitless attainment; the two experiences are simultaneous. You are such images of experience, are you not? Achcha.

 

Now, put into a practical form everything you have heard. To listen means to become. Today, Baba has especially come to meet His equals. You are all equals, are you not? The true Teacher has come to meet the instrument teachers. He has come to meet His service companions. Achcha.

 

To those who are always embodiments of the awareness of the unlimited consciousness of "I", to those who remain constantly stable in the unlimited powerful form of "Mine is the one Father alone", to the children who remain stable in an elevated stage, those who take the support of bodies and incarnate as incarnations, BapDada's love, remembrance and namaste.

 

BapDada meeting teachers:

 

This is the gathering of those who are constantly serviceable souls, is it not? Do you always consider yourselves to be unlimited world servers? You are not limited servers, are you? Are all of you unlimited? If any of you were to be sent from one place to somewhere else, are you ready? Are all of you flying birds? Are you flying birds despite the branch of body consciousness. The branch that pulls you to itself the most is this consciousness of the body. The slightest attraction towards old sanskars means that there is the consciousness of the body. "My nature is like this. My sanskars are like this. My way of living is like this. My habits are like this." All of these are signs of body consciousness. So, have you birds flown even from this branch? This is called the karmateet stage, no bondage at all. Karmateet doesn’t mean that you become free from performing actions, but free from any bondage of action. So, actions of the body; this means, for instance, some have the nature of living comfortably, of eating comfortably at the right time, and of doing everything at the right time. This bondage of karma also pulls you to itself. Go beyond this bondage, that is, the habit of even this karma, because you are instruments.

 

Until all of you instrument souls become free from any bondage of karma and sanskars and nature of the body, how would you free others? For instance, illness of the body is the suffering of karma. In the same way, if any bondage of karma pulls you to itself, that suffering of karma also creates obstacles. When a physical illness, some suffering of karma, repeatedly pulls you, it is pain that pulls you, isn’t it? Then, you say: What can I do? Otherwise, I am fine, but there is severe suffering of karma. In the same way, if any particular old sanskar, nature or habit pulls you, that is also the suffering of karma. Any type of suffering of karma will not allow you to become a karma yogi. Therefore, go beyond this too. Why? All of you are souls who are going to claim number one. The meaning of number one is: those who win in everything. Nothing is then lacking. The meaning of teachers is to be those who with their own image constantly give the experience of karmateet Father Brahma and loving and detached Father Shiva. So you have this speciality, do you not? You are friends, are you not? How do you become friends? You cannot be friends with someone without being equal. Therefore, all of you are the Father's friends. You are Godly friends. To be equal is to have friendship. You are those who place your footsteps in the Father's steps because you are friends and also lovers of the Beloved. So the lovers always place their footsteps in the steps of their Beloved. This is the system, is it not? What do they make a couple do when they are getting married? This is what they make them do, is it not? So where was this system created? It was created by you people. Yours is the foot of the intellect but they have understood it to be physical feet. You are the instrument souls with special relationships who fulfil the responsibility of every relationship.

 

The instrument teachers have a much easier method than that of others. Others still have to maintain their relationships, whereas your relationship is always with service and the Father. Even when you are carrying out a worldly task, you always remember when it is the time, for you to go on service. Whoever you are carrying out worldly work for, you automatically have the awareness of that one. For instance, in the world, parents earn an income for their children and so they automatically remember them. Therefore, when you are doing your worldly work, who are you doing that for? Are you doing that for yourself or for service? The more you use for service, the more happiness you have. Never work while thinking that you are doing worldly work. This too is a means of service. It has a different form, but it is still a form of service. Otherwise, if it were worldly service and you didn't have the facilities to serve, you would think about where you could obtain something from, how would you obtain something. “I am unable to manage. I don't know when it will happen.” Do these thoughts not waste your time? Therefore, never say that you are doing a worldly job. It is a non-worldly job. It is for the sake of service. You will then never feel it to be a burden. Otherwise, you sometimes become heavy: “For how long do I have to do this? What will happen?” This is the way for all of you to create your reward easily.

 

There are the three things: body, mind and wealth. If you are using all three things for service, then who will receive the fruit of all those three? Will you receive it or will the Father receive it? To be able to create your reward in all three ways is an additional reward to that of others. Therefore, never get heavy about this. Simply change your motives. It is not for worldly but for non-worldly service. Change this motive. Do you understand? You then become doubly surrendered. You surrendered with your wealth. Everything is for the Father. What is the meaning of surrender? Whatever you have is for the Father, that is, it is for service. This is surrender. Those who are not surrendered, raise your hands! We will have a ceremony for them. You have also created children and you are saying that you are not surrendered. You celebrate your wedding anniversary, so don't say that you are not married. What do you think: the whole group is surrendered, is it not?

 

BapDada praises a great deal the double-foreign children and the teachers who are instruments at the double-foreign places. He isn't praising you just for the sake of it, but you do make special effort with a lot of love. You have to make a lot of effort but, because of love, you don't feel that to be effort. Look, you prepare the groups and bring them here from so very far away. Therefore, BapDada surrenders Himself to you children because of the efforts you make. The double-foreign instrument servers have one very good speciality. Do you know what that speciality is? (Many specialities emerged.) Whatever specialities emerged, check yourself and if they are missing, then fill yourself with them because many good things emerged. BapDada is telling you that He saw one speciality of you double-foreign servers: whatever directions BapDada gives, you do it and put it into a practical form. No matter how much effort you have to make, you definitely have to make it practical. This practical aim is very good. Just as BapDada says that they have to bring a group, so they bring groups.

 

BapDada said that you have to serve VIPs and, initially, you used to say that it was very difficult, but you maintained the courage of having had to do that. So, now, for two years, groups have been coming. You used to say that it was very difficult for VIPs to come here from London. However, you have now shown the practical example. This time, even those from Bharat brought the President here. Nevertheless, the enthusiasm you double foreigners have of definitely having to carry out whatever direction you receive and the love you have for doing it is very good. Seeing the practical result, BapDada sings praise of your speciality. To open centres is a thing of the past. You will continue to open them because you easily have all the facilities there. You can go from here and then open them there. Bharat doesn’t have these facilities. Therefore, to open centres is not a big thing, but you now have to prepare such very good heir-quality souls. One is to prepare heir-quality souls and the other is to prepare those who are powerful in spreading the sound; both are necessary. Heir quality – for instance, with the zeal and enthusiasm for doing service, you have surrendered your body, mind and wealth with your intellect - this is known as heir quality. So you also have to make heir-quality souls emerge. Let there be special attention paid to this. At every centre, let there be such heir quality souls. That centre will then become number one of all the centres.

 

One is to be co-operative in service and the other is to surrender yourself completely. How many such heirs are there? Are there such heirs at every centre? There is a long list that you have created of Godly students and of those who are co-operative in service, but only some are heirs. Whoever receives a direction at any moment, whatever shrimat you continue to receive, continue to move along according to that. So keep both aims. You have to create this type and also that type. One such heir-quality soul can become an instrument to open many centres. This will continue to happen in a practical way when you have the aim. You have now understood your speciality, have you not? Achcha.

 

You are content anyway, or do you need to be asked? You are those who make others content. So, those who make others content would be content themselves anyway, would they not? You do not fluctuate when you see that there is very little service sometimes, do you? When there are obstacles at the centre, you do not then become afraid on seeing the obstacles, do you? For instance, if the biggest of all obstacle comes or a good hand becomes anti and causes a disturbance in your service, what would you do then? Will you become afraid? One is to have mercy for that one while having benevolent feelings – that is a different matter. However, if your stage fluctuates or you have waste thoughts, then that is fluctuation. So, do not create a world with your thoughts. Do not let those thoughts make you fluctuate. This is known as an unshakeable and immovable stage. Let it not be that you become careless by thinking that it is nothing new. Do service, be merciful towards that one and do not fluctuate. So, do not be careless and do not start having any type of feeling. You can always be in any type of atmosphere or environment, but remain unshakeable and immovable. When an instrument person advises you, do not get confused by that. Do not wonder why that person is telling you or how it would happen. Those who are instruments are experienced and out of those who are moving along practically, some are new, whereas others are a little older. So, when any situation comes in front of them, then, because of that situation, they do not have such clear intellects to understand the beginning, middle and end. They can only know the present and so, just seeing the present, the beginning and middle are not as clear to them and so they become confused. At any time, even if a direction is not clear, do not become confused. Just say with patience that you will try to understand it and give that person a little time. At that time, do not be confused and say, “Do not do this” or “Do not do that”, because double foreigners have a free mind to a greater extent, and they can even say “No” with a free mind. Therefore, whenever anything comes your way, first of all think about it with maturity for there is definitely some significance hidden in it. They can ask, “What is the significance of this?” What would be the benefit of this? Explain to us more clearly. You can tell them this. However, never refuse any direction. It is because you refuse it that you become confused This little extra attention is given to the double foreigners. Otherwise, what will happen is that they will not try to understand the directions of you instrument sisters and will start to fluctuate. These sanskars will be filled in those for whom you are the instruments when they see you. Sometimes, some will then sulk and at other times, others will sulk and these games will then continue at the centre. Understand? Achcha.

 

Blessing:May you be a mahavir who passes through every adverse situation in a second with the powers of knowledge and yoga.

A mahavir means to be a constant light-and-might-house. Knowledge is light and yoga is might. Those who are full of these powers are able to pass through every adverse situation in a second. If you develop the sanskar of not passing on time, that sanskar will then not allow you to pass fully in the final moments. Those who pass fully on time are said to have passed with honours. Even Dharamraj honours that soul.

Slogan:Burn the seed of vices in the fire of yoga and you will not be deceived at that time.

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