Details ( Page:- Bhai Dooj )
भैया दूज का वास्तविक अर्थ
अमावस्या की काली, अंधियारी रात को दीपावली का त्योहार मनाया जाता है और जिस दिन चंद्रमा के दर्शन होते हैं उस दिन भारत मे सर्वत्र भैया दूज या यम द्वितीया का पर्व मनाया जाता है। रक्षा बंधन के पर्व की तरह ही यह भी बहन -भाई के निश्छल प्रेम का प्रतीक है। पर्व से संबंधित कथा:इस पर्व के संबंध मेँ एक कथा प्रचलित हैं। कहते हैं, यमुना और यम दोनों बहन - भाई थे। यमुना की शादी मृत्युलोक मेँ हो गयी और वह धरती पर बहने लगी। यम को यमपुरी में आत्माओं के कर्मों के हिसाब-किताब देखने और कर्मों अनुसार फल देने की सेवा मिली। यमुना अपने भाई यम को याद करती रहती थी और अपने घर आने का निमंत्रण देती रहती थी। यमराज बहुत व्यस्त रहते थे, रोज़ ही आत्माओं का लेखा-जोखा करना होता था, इसलिए आने की बात को टालते रहते थे। बार-बार बुलावा भेजते-भेजते आखिर एक दिन भाई आने को वचनबद्ध हो गया, वह कार्तिक शुक्ल का ही दिन था। भाई को घर आया देख यमुना की खुशी का ठिकाना न रहा। बड़े प्यार से, शुद्धिपूर्वक भोजन करवाया और बहुत आतिथ्य किया। बहन के निश्चल स्नेह से प्रसन्न होकर यमराज ने वर मांगने को कहा। यमुना ने कहा, मैं सब रीति भरपूर हूँ, मुझे कोई कामना नहीं है। यम ने कहा, बिना कुछ दिये मैं जाना नहीं चाहता। बहन ने कहा, हर वर्ष इस दिन आप मेरे घर आकर भोजन करें। मेरी तरह जो भी बहन अपने भाई को स्नेह से बुलाए, स्नेह से सत्कारकरे, उसे आप सजाओं से मुक्त करें। यमराज ने ‘तथास्तु’ कहा और यमुना को वस्त्राभूषण देकर वापस लौटगए।
इस कहानी का बहुत सुंदर आध्यात्मिक रहस्य है। हमने भक्ति मार्ग में भगवान को कहा, 'त्वमेव माता चपिता त्वमेव, त्वमेव बंधु च सखा त्वमेव' भावार्थ यह है कि भगवान पिता तो माना ही, सखा और भाई भी माना। एक समय था जब हम आत्माएँ और बंधु रूप परमात्मा - इकट्ठे एक ही घर परमधाम में रहते थे. बादमें हम आत्मायेँ पृथ्वी पर पार्ट बजाने आ गईं और यमुना नदी की भांति, जन्म-पुनर्जन्म में, एक स्थान से दूसरे स्थान पर बहती रहीं। परमात्मा पिता का ही दूसरा नाम यमराज भी है। यम का अर्थ है कि वे आत्माओं के कर्मों का हिसाब करते हैं और दूसरा अर्थ है, नियम – संयम का ज्ञान देते हैं। दोनों ही कर्तव्य परमात्मा के हैं। आधा कल्प के बाद द्वापर युग से हम आत्मायेँ अपने पिता परमात्मा को सभी रूपों मेँ, भाई रूप मेँ भी याद करती आई है और पृथ्वीलोक में आ पधारने का निमंत्रण देती आई हैं। इस संबंध में एक सुंदर भजन भी है, 'छोड़ भी दे आकाश सिंहासन इस धरती पर आजारे'। परंतु वो समय भक्तिकाल का होता है, परमात्मा पिता के धरती पर अवतरण का नहीं। फिर भी वे हमारी पुकार भरी अर्जियों को सुनते रहते हैं, दिल मेँ समाते रहते हैं और कलियुग के अंत मे जब पाप की अति हो जाती है तब वे साधारण मानवीय तन का आधार ले अवतरित हो जाते हैं । आधा कल्प की पुकार का फल - परमात्म अवरतरण के रूप में पाकर हम आत्माएँ धन्य हो जाती हैं। हम आत्माएँ धरती परअवतरित बंधु रूप परमात्मा को दिल में समाकर, स्नेह से भोग लगाती है, उसका दिल व जान से आतिथ्य करती हैं। भगवान हमारे इस स्नेह को देख हमें वरदानों से भरपूर कर देते हैं और कहते हैं, जो आत्माएँ धरती पर अवतरित मुझ परमात्मा को पहचान कर सत्कारपूर्वक आतिथ्य करेंगी, मेरी श्रीमत पर चलेंगी, उन्हें मैं सज़ाओं से मुक्त कर दूंगा। इस प्रकार यह त्योहार, परमात्मा के साथ बंधु का नाता जोड़ने और निभाने का यादगार है। परमात्मा तो निराकार हैं, साकार शरीर उनका है नहीं, इसलिए कालांतर में बहन शरीरधारी आत्माओं ने भाई शरीरधारी आत्माओं को तिलक लगाने और मुख मीठा करने के रूप में इसे मनाना प्रारम्भ कर दिया। भगवान के बच्चे हम सब आपस में बहन-भाई हैं। भाई दूज का त्योहार इस निर्मल नाते को सुदृढ़ करने का आधार है। यह पर्व दीपावली के तुरंत बाद आता है, इसका भी रहस्य है। दीपावली, श्री लक्ष्मी, श्री नारायण के राजतिलक का यादगार पर्व है । इनके राजतिलक के बाद विश्व में, ऐसे भाईचारे का राज्य स्थापित होता है जिसमें नर नारी तो क्या- गायशेर तक भी इकट्ठे जल पीएंगे - यह मान लीजिये कि गाय और शेर मेँ भी बहन - भाई का निर्मल नाता स्थापित हो जाएगा भावार्थ यही है, पशु, प्राणी, प्रकृति सभी स्नेहपूर्वक जीवन व्यतीत करेंगे। परमात्मा पिता से भ्रातृ नाता जुड़ाने वाले, सतयुगी भ्रातृभाव की झलक दिखाने वाले इस भैयादूज के पर्व पर हमारी शुभकामना है कि धरती पर अवतरित धर्मराज भगवान को पहचान कर, उनकी श्रीमत पर चलते हुए आप सभी प्रकार की सज़ाओं से मुक्त हो जाएँ।
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